Friday, January 21, 2011

मृग मरिचिका

यथार्थ और परिकल्पनाओं के अधर
भावनाओं के सागर में उठती लहर
सत्य समझ छद्म आभासों को
पाने को लालायित हुआ ह्रदय
समक्ष यथार्थ के आते ही
आभास क्षणभर में हुआ विलय
तड़पता तरसता व्यथित मन
नित्य प्रतिक्षण बढ़ती तृष्णा का सार पाना चाहता है
अंतरतम की इस तृष्णा से पार पाना चाहता है

होता प्रतीत यथार्थ सा किन्तु
आभास सदा आभास ही तो है
जब लोभ सरिता तट पर गए तो
जो हाथ लगा वो प्यास ही तो है
कर दूर सभी छद्म भ्रांतियाँ
चेतना संचार, विवेक के आधार संग 
काट कर व्यर्थ जंजाल सभी
आशा निराशा के भँवर के उस पार जाना चाहता  है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है

जब दूर खड़े हो पर्वत से देखा
शीतल, स्वच्छ सरोवर पाया
जब प्यास बुझाने गए पास तो
न बूंद नीर का कही पर पाया
छद्म सरोवर यह आभासी, आभासी ये संसार  है
आभासी सब रिश्ते नाते आभासी प्यार,दुलार है
छल आभास की परिभाषा को
शास्वत सत्य, अटल, अविरत आधार पाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है

कचोट कर मन से अवसाद सभी
चिर कर अभ्र यह अंधकारमयी
निष्ठा व कर्म के साध पंख
जाना चाहता है परिकल्पनाओं के पार मन
जहाँ उड़ सके चेतना की एक सच्ची उड़ान
यथार्थ के अनन्त विशाल नभ में 
जहाँ मिल पाए व्याकुल पंछी को प्राण 
परम शांति, परम तृप्ति का वह द्वार पाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है