यथार्थ और परिकल्पनाओं के अधर
भावनाओं के सागर में उठती लहर
सत्य समझ छद्म आभासों को
पाने को लालायित हुआ ह्रदय
समक्ष यथार्थ के आते ही
आभास क्षणभर में हुआ विलय
तड़पता तरसता व्यथित मन
नित्य प्रतिक्षण बढ़ती तृष्णा का सार पाना चाहता है
अंतरतम की इस तृष्णा से पार पाना चाहता है
होता प्रतीत यथार्थ सा किन्तु
आभास सदा आभास ही तो है
जब लोभ सरिता तट पर गए तो
जो हाथ लगा वो प्यास ही तो है
कर दूर सभी छद्म भ्रांतियाँ
चेतना संचार, विवेक के आधार संग
काट कर व्यर्थ जंजाल सभी
आशा निराशा के भँवर के उस पार जाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है
जब दूर खड़े हो पर्वत से देखा
शीतल, स्वच्छ सरोवर पाया
जब प्यास बुझाने गए पास तो
न बूंद नीर का कही पर पाया
छद्म सरोवर यह आभासी, आभासी ये संसार है
आभासी सब रिश्ते नाते आभासी प्यार,दुलार है
छल आभास की परिभाषा को
शास्वत सत्य, अटल, अविरत आधार पाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है
कचोट कर मन से अवसाद सभी
चिर कर अभ्र यह अंधकारमयी
निष्ठा व कर्म के साध पंख
जाना चाहता है परिकल्पनाओं के पार मन
जहाँ उड़ सके चेतना की एक सच्ची उड़ान
यथार्थ के अनन्त विशाल नभ में
जहाँ मिल पाए व्याकुल पंछी को प्राण
परम शांति, परम तृप्ति का वह द्वार पाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है
26 comments:
मन में उठती कशमकश को सार्थक शब्द दिए हैं ..खूबसूरत अभिव्यक्ति
कौन अंतरतम की तृष्णा से मुक्ति पाया है... कोई नहीं..
बढ़ी है मन की उत्कट आस,
काश हो जाये सफल प्रयास।
हर इंसान के मन में ऐसी ही भावनाए होती हैं. आपने उनको क्या सशक्त अभिव्यक्ति दी है रानी जी. यही तो काव्य है....
गोपाल दास नीरज जी ने कहा है.."आत्मा के सौन्दर्य का ,शब्द रूप है काव्य मानव होना भाग्य है ,कवि होना सौभाग्य"
बहुत सुन्दर...
स्नेहेच्छु ....राजेश
जब दूर खड़े हो पर्वत से देखा
शीतल, स्वच्छ सरोवर पाया
जब प्यास बुझाने गए पास तो
न बूंद नीर का कही पर पाया
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यथार्थ के अनन्त विशाल नभ में
जहाँ मिल पाए व्याकुल पंछी को प्राण
परम शांति, परम तृप्ति का वह द्वार पाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है
एक गहरा अर्थ लिए बेहतरीन रचना
बस इसी तृष्णा के पीछे भाग रहे हैं ..... हर पंक्ति प्रभावी .... अर्थपूर्ण
होता प्रतीत यथार्थ सा किन्तु
आभास सदा आभास ही तो है
जब लोभ सरिता तट पर गए तो
जो हाथ लगा वो प्यास ही तो है
सारगर्भित पोस्ट सोचने को मजबूर करती ....
छद्म सरोवर यह आभासी, आभासी ये संसार है
आभासी सब रिश्ते नाते आभासी प्यार,दुलार है ...
सब अंतर्मन की तृष्णा ही तो है ...जो हम चाहते हैं दूसरों में खोजने या यत्न करते हैं
विचारों की बाढ़ को सुन्दर शब्दों में बांधा !
bhut khoobsurat rachna....aabhar
जाना चाहता है परिकल्पनाओं के पार मन
जहाँ उड़ सके चेतना की एक सच्ची उड़ान
यथार्थ के अनन्त विशाल नभ में
जहाँ मिल पाए व्याकुल पंछी को प्राण
बहुत बार मन मे ऐसा दुअन्द चलता है लेकिन वो अनन्त आकाश कहाँ मिलता है। सुन्दर रचना के लिये बधाई।
सोचने को मजबूर करती ....
आपकी रचनाओं में एक अलग अंदाज है,
बहुत ही सार्थक और मर्मस्पर्शी कविता.
सादर
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मैं नेता हूँ
छद्म सरोवर यह आभासी, आभासी ये संसार है
आभासी सब रिश्ते नाते आभासी प्यार,दुलार है
गहन चिंतन से परिपूर्ण एक भावमयी सार्थक प्रस्तुति..बहुत सुन्दर
अगर हम इस तृष्णा पर विजय पा ले तो इंसान बन जाये, कोई नही पा सका इस पर विजय. धन्यवाद
खूबसूरत अभिव्यक्ति.
मानव मन के विकट जाल को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करती एक उत्तम कविता!!
सुन्दर अभिव्यक्ति।
वाह! क्या बात है?
जीवन की सच्चाई को उकेरती है आपकी कविता.........अति सुन्दर
परम शांति, परम तृप्ति का वह द्वार पाना चाहता है
इस अंतरतम की तृष्णा से पार पाना चाहता है
बस अगर ऐसा हो जाये तो फिर कोई आस बाकी न रहे……………बेहद सशक्त अभिव्यक्ति।
"अंतरतम की इस तृष्णा से पार पाना चाहता है" "तृष्णा" छूटे अरु "लोभ" की तन्द्रा टूटे हो जावोगे भवसागर पार"। पर युग प्रभाव से कहें या आज के परिवेश को,कौन अंतरतम की तृष्णा से मुक्ति पाया है... कोई नहीं…यही सत्य है। ………खूबसूरत अभिव्यक्ति।
interesting poems...
bahut achchi lagi.
रानी जी ! बहुत सुन्दर सृजन है काव्य का... और मरीचिका ने बरसों से मृग को तरसाया ही है ...
bahut khub
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