Tuesday, September 21, 2010

विरक्ति पथ { अंतिम भाग }------------रानीविशाल

(अब तक : शालिनी और शची वर्षों के बाद दिल्ली में फिर से मिले है लेकिन इतने सालों में काफ़ी कुछ बदल चूका है ....दोनों सखियाँ शेष दिवस साथ बिता कर सुख दुःख बाटने लगती है । बातों ही बातों में पता चला शची अकेली रहती है उसका पति उसके साथ नहीं । कारण पूछने पर शची वृतांत सुना रही है कि किस तरह इम्तहान के बाद जब वो अपने पापा के साथ ससुराल मनाली पहुची तो सिद्धार्ट के व्यवहार में परिवर्तन आगया .....वह साधू सन्यासियों सी बातें कर रहा है । शची समेत संसार कि सभी स्त्रियाँ उसके लिए मातृवत है ......शची आपने सपनों के टूटने के दर्द से सारी रात तड़पती रही )

अब आगे : सिद्धार्थ के कक्ष से जाते समय शची अच्छे से समझ गई थी कि इसके बाद वो कभी इस कक्ष में उसके साथ नहीं हो पाएगी ....अब उसे यह ठीक से समझ आगया था कि शायद वह जिसे सिद्धार्थ का बड़प्पन समझ रही थी वह तो उसका अलगाव ही था . सुबह होते ही शची चाय लेकर आपने सास ससुर कि सेवा में पहुच गई शची के हाथों चाय कि प्याली लेते हुए वे एक टक खिड़की से सुनी राहों को निहार रहे थे . शची के चहरे पर उसकी व्यथा साफ़ नज़र आरही थी . भोर होने से पहले उन्होंने ही इस खिड़की से सिद्धार्थ को दूर सड़क पर जाते हुए देखा था ...मानो आज वो सच मुच ये सारे बंधन ये जिम्मेदारियां छोड़ कर सदा को जारहा है . आखिर वो उसके माता पिता थे उसमे आए इस बदलाव को वो पहले ही भांप चुके थे . शची की सास उसके सर पर हाथ रख कर हिम्मत दिलाती है ......धैर्य रख बेटा सब ठीक हो जाएगा . पीड़ा के इन क्षणों में इस संत्वना ने शची को मोम कि तरह पिघला दिया और शची अपनी सास के घुटनों पर सर रख कर बिलख बिलख कर बच्चों की भाँती रोने लगी ....अब कुछ ठीक नहीं होगा माँ .....वो मुझे इस रिश्ते से स्वतंत्र कर चुके है , वे तो कभी इस बंधन में बंधे ही नहीं सदा विरक्त थे .....वो तो मैं ही थी जो प्रेम की आस लगाए बैठी थी . उन्होंने कहा है कि अब उनका संसार के हर प्राणी से एक ही रिश्ता है जो जीवमात्र का एक दूजे से होता है .....अब मैं क्या करू माँ ??
शची का यह रोदन उसके पापा को पूरी तरह आहत कर गया जो अभी अभी बैठक में पहुचे ही थे कि ये सब उन्हें सुनाई दिया वे तो ख़ुशी ख़ुशी स्वस्थ महसूस करने पर सबसे रवानगी कि आज्ञा लेने आए थे .....अब उन्हें भी समझ में आया कि सुबह ४ :०० के आस पास दूर सड़क पर अपनी ही धुन में चला जारहा वह युवक कोई और नहीं सिद्धार्थ ही था .
उन्होंने शची से कहा बेटी तू मेरे साथ ही चल ....शायद इसीलिए मैं अब टक यहाँ रुका था , वे दुखी मन से बोले
नहीं नहीं भाईसाब हम सिद्धार्थ को ढूंढ़ कर लाएंगे उसे समझाएंगे.....आप हौसला रखे .
मैं आपकी बात समझता हूँ लेकिन फिलहाल शची का मेरे साथ ही जाना ठीक है . अपने लोगो के बिच इसके तड़पते ह्रदय को ठाह मिले ...सिद्धार्थ के माता पिता बहुत शर्मिंदा थे लेकिन शची और उसके पिता समझते थे कि इसमे उनका क्या दोष दोनों पुनः दिल्ली के लिए रवाना हो गए .सारे रस्ते बाप बेटी एक दुसरे से कुछ न कह सके , कुछ बोलते भी तो कंठ भर आता
शाम ढले जब दोनों घर पहुचे तो शची की माँ उसे अपने पापा के साथ देख अचंभित रह गई ...माँ के ह्रदय से लगते ही शची का सारा दर्द आँखों से बहाने लगा ....
शालू , उस रात इस सदमे को लेकर पापा सोए तो सुबह नहीं उठ पाए ....यह समाचार पाकर जब सिद्धार्थ के माता पिता आए तो पता चला कि उस दिन के बाद सिद्धार्थ घर नहीं लौटा .....वो तो निकल पड़ा था अपने विरक्ति पथ पर अपने बूढ़े माता पिता को निसहाय छोड़ कर इतना ज्ञान अर्जन कर कर्तव्य पथ और विरक्ति पथ में उसने विरक्ति पथ चुन लिया था जाने कौनसा परमानंद पाने को ...जब कि बड़े बड़े ज्ञानी कह गए है ...माता पिता के चरणों में स्वर्ग होता है
भाई की नौकरी मुंबई में लग गई थी ....इसीलिए हम सब घरबार बेच कर मुंबई ही चले गए ..
कुछ साल बीते भैया और माँ के हौसले से मैंने खुद को संभाल ही लिया और भैया के साथ ही उसकी कंपनी के मार्केटिंग डिविज़न में जाब करने लगी ....लेकिन अन्दर का सूनापन हमेशा मसोसता रहा
भाई और माँ यह जानते थे कि आत्मनिर्भर और कुछ कर पाने का अहसास ही मुझे कुछ सुकून दे सकेगा ....इसी लिए जब मुझे यह जॉब मिली तो उन्होंने ख़ुशी से मुझे आने कि आज्ञा दी .....इस शहर में मेरी बचपन कि यादें रची बसी है जो मुझे इस तन्हाई का अहसास नहीं होने देती .....
लेकिन शची तुमने दूसरी शादी क्यों नहीं की ??
एक बार इस बंधन में हुई आसक्ति को तोड़ कर सिद्धार्थ ने मेरी आस्था को वो ठेस पहुचाई है कि अब इस पर विश्वास नहीं होता ...हाँ कभी कभार साल में एकाध बार सिद्धार्थ के बूढ़े माता पिता से मिलाने चली जाती हूँ उनके अकेलेपन और लाचारी का ख्याल आता है तो दुःख होता है ...वे भी अब मुझे बेटी सा ही स्नेह देते है वो रिश्ता तो अब बहुत पीछे छुट गया
बातों बातों में अविनाश (शालिनी ) के पति भी पार्क में आपहुचे .....सब लोगो का हसी ख़ुशी संवाद हुआ शची भी खुश थी ......फिर सब अपने अपने घर को निकल पड़े . सारे रस्ते शालिनी के नेत्रों से अश्रुधाराएं बह रही थी , जिन्हें वो शची से तो छुपा रही थी लेकिन अपने हमराज़ से ना छुपा सकी .
शालिनी एकांत में घंटों सोचती रही कि वो निर्दोष जो अपने समस्त प्रेम का अर्ध्य देकर अपने जीवन को आस्था और विश्वास के सुरों से झंकृत करना चाहती थी .......उसके जीवन को खुशियों और विश्वास से विरक्त करके .........बूढ़े मजबूर माता पिता को जीने कि चाह से विरक्त करके अपने विरक्ति पथ पर अग्रसर हुआ सिद्धार्थ -कौनसा परमानन्द किस तरह पाएगा .....क्या निर्थक नहीं अपने कर्तव्यपथ को छोड़ कर जाने वाला यह विरक्ति पथ !!!!

Monday, September 20, 2010

विरक्ति पथ { भाग ३ }-----------------------रानीविशाल

(अब तक : कालेज ख़त्म होने के बाद से बिछड़ी परम सखियाँ शची और शालिनी दिल्ली में किसी मॉल में अचानक टकराती है । शची मुंबई से पिछले महीने ही आई है........ इसी माल में मेनेजर है । दोनों मिलकर शेष दिन साथ में बिताने का तय करते है ताकि एक दुसरे से सुख दुःख की बातें कर सके । बातों के दोरान शची शालिनी को बताती है अब वो और उसके पति सिद्धार्थ साथ नहीं है .......इम्तिहान के बाद जाब वो अपने पिता के साथ ससुराल गई तो हमेशा के लिए आगई । शालिनी अचंभित है .....शची वृतांत सुनती है )

अब आगे :
परिणाम आने पर मैं बहुत उत्साहित थी ....सिद्धार्थ का पी. एच. डी. भी अब तक पूर्ण हो चूका था । तब पापा के साथ दिल्ली से मनाली अपने ससुराल जाते वक्त मार्ग में पुरे समय मैं सिद्धार्थ के साथ अपने मिलन के सपने सजा रही थी । मनाली की खुबसूरत वादियों में ख्यालों में अपने साथ उन्हें ही पाती . हर्षित मन और ढ़ेर सारी उमंगें...... . शादी के ३ सालों में मैं, भावात्मक रूप से सिद्धार्थके साथ पूरी तरह जुड़ चुकी थी । वैसे भी हम कितने भी मार्डन क्यों न हो जाए अपने पति को परम प्रिय मानना तो हिन्दुतानी लड़कियों की फितरत होती है । रात होते होते हम लोग घर पहुच गए ....सफ़र की थकान ने पापा को बहुत लुस्त कर दिया था । वे पहले ही दिल के मरीज़ थे और उस पर मौसम भी कुछ ठीक ना था अगर भाई की इंजीनियरिंग की परीक्षा नहीं होती तो पापा शायद उसे ही साथ भेजते । घर में सास ससुर हमें देख बहुत खुश हुए ......पापा, आप आराम कीजिये मैं आपका भोजन आपके कक्ष में ही लेकर आजाऊंगी.....कह कर शची एक ज़िम्मेदार बहु की तरह रसोई में चली गई । सास ससुर को भोजन करते वक्त वो महसूस कर रही थी जैसे उनके ह्रदय पर कोई बोझ सा है पता नहीं किस उलझन मैं है ! सबको भोजन करा कर शची अपने पापा के लिए भोजन लेकर कक्ष में जाती है मगर ये क्या ....पापा आपको तो बड़ा तेज़ बुखार हो गया है ! अभी तो दवाई दे रही हूँ ये लेकर आराम कीजिये लेकिन कल तक आप एक दम ठीक ना हुए तो नहीं जाने दूंगी । शची के सास ससुर भी उसके पिताजी से २-३ दिन रुक कर पूर्ण स्वस्थ होने का आग्रह करने लगे ।
शची की सास जो उसे अपनी माँ की ही तरह लगाती थी बड़े प्यार से कहती है शची बेटा तुमने अब तक कुछ नहीं खाया ...सफ़र की थकान है तुम भी भोजन करो और जाकर आराम करो । थोड़ी शरमाई हुई शची कहती है ....नहीं माँ उन्हें आने दीजिये । यह सुन कर शची की सास के सर पर चिंता की लकीरे खीच गई । क्या हुआ माँ आप कुछ चिंतित दिखाई देती है ....बेटा तुम्हे तो पता ही है पहले भी सिद्धार्थ अक्सर शाम को पहाड़ों में टहलने चला जाया करता था .....हाँ , वो कहते थे एकांत में प्राकृतिक सोंदर्य के बिच पढ़ाई अच्छी होती है इसीलिए .....हाँ बेटा , लेकिन अब तो वो शाम से जाता है तो देर रात तक आता है कभी कभी तो १२ -१ बज जाते है रत के । शची सोचने लगी ४-५ महीनो से वो भी नहीं थी शायद अकेलेपन के कारन सिद्धार्थ ऐसा करते है । अपनी सास को समझती है माँ, अब मैं आगई हूँ न सब ठीक हो जाएगा । आप निश्चिंत होकर सो जाइए जब वो आएँगे मैं उन्हें खिला दूंगी । जैसी तुम्हारी ईच्छा बेटा ....कह कर शची की सास भी चली गई ।
घंटों बीत गए सिद्धार्थ का कोई अता-पता न था । शची गैलरी में खड़ी हो कर दूर सड़क पर सिद्धार्थ को देख रही थी .....सर्दी भी बहुत बड़ गई थी । उसका मन अब व्यथित होने लगा ...... सोचने लगी आज तो सिद्धार्थ को पता ही था मैं आजाऊगी फिर भी अब तक न आए ....सहसा शची को कक्ष में किसी की आहट सुनाई देती है , अचानक शची अन्दर आई
आप आगए .....
हाँ आगया .......अपनी ही सोच में डूबा सिद्धार्थ ....गंभीर स्वर में जवाब देता है .
ये क्या ? न स्वेटर न शाल ! बाहर कितनी सर्दी है रात की १ बजने को है खाना भी नहीं खाया आपने अब तक .....कहाँ थे ?
पहाड़ों के शिखर पर एकांत में परमानन्द को महसूस कर रहा था .....वो तो मुझे माँ ने बता ही दिया ...मैं भी मनाली की हसीं वादियों में आपके साथ साथ घूमना चाहती हूँ ३ साल में हम कभी भी नहीं घुमे यहाँ ...
लेकिन आपने गरम कपड़े क्यों नहीं पहने .....सर्दी लग जाएगी ऐसे तो ।
शची , सर्दी या गर्मी का अहसास सिर्फ शारीर को होता है....आत्मा इनसे परे है । आपकी बड़ी बड़ी बातें आप ही समझे चलिए ...भोजन परोस दिया है ...
मैं अमृत सुधापान कर तृप्त हो चूका हूँ । अब भूख कहाँ.....!!
अरे, ऐसे कैसे नहीं खाएंगे.......... इस तरह रहेंगे तो कमज़ोर हो जाएंगे ।
कमज़ोरी इस नश्वर शरीर को आसकती है मुझे नहीं ....इस शारीर का मोह त्याग दो शची .....
माँ के चहरे पर खिंची चिंता की लकीरे शची उसके और सिद्धार्थ के बिच अब बहुत अच्छी तरह देख सकती थी । हिम्मत कर शची सिद्धार्थ के नज़दीक जाने का प्रयास करती है ...लेकिन, तुरंत उसे लगा जैसे सिद्धार्थ की निगाहें उसे इसकी अनुमति नहीं देती ....सिद्धार्थ उससे कहता है शची अब मैं भौतिक जीवन के बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो चूका हूँ बल्कि मैं तो कभी इस बंधन में बंधा ही नहीं था। तुम मेरा हाथ थम जिस राह पर चलना चाहती हो वो मेरा मार्ग नहीं .....
मैं तो विरक्ति पथ पर सतत अग्रसर हूँ ।
विरक्ति पथ ??? शची के शरीर में बिजली सी कौंध गई .....
हाँ शची, ये संसार , ये रिश्ते , ये बंधन .....ये गृहस्थ मेरे लिए नहीं ...... मैं तो विरक्ति पथ पर चल कर परमानन्द को प्राप्त कर निर्वाण तक पहुचना चाहता हूँ ।
शची के ह्रदय पर जो आघात हुआ कि उसका संभलपाना मुश्किल हो गया ....सारे सपने क्षणभर में टूट कर बिखर गए ....
मेरे लिए अब कोई रिश्ता अलग नहीं सब एक जैसे है .....संसार की सारी स्त्रियाँ मात्रतुल्य है .....तुम चाहो तो मेरी भावनाएं जानने के बाद भी बिना मुझसे कोई अपेक्षा किये पुरे अधिकार से इस घर में रह सकती हो अन्यथा तुम अपना घर संसार बसने के लिए स्वतंत्र हो ...मुझे तुम्हे रोकने की रत्ती मात्र चेष्ठा नहीं ....सिद्धार्थ फिर से लाइब्रेरी में जाकर अपनी किताबों में खो गया .....
ये रात उसके जीवन में इतना बड़ा कहर गिराएगी शची ने सोचा न था .....सारी रात उसके नेत्रों से उसकी पीड़ा बहती रही .....
क्रमशः

Friday, September 17, 2010

विरक्ति पथ { भाग २ }-----------------------रानीविशाल

(अब तक : बचपन की प्रिय सहेलियाँ शची और शालिनी अचानक शोपिंग मॉल में शालिनी की बेटी मीसा के जरिये मिल जाती है । शची मॉल में ही मेनेजर है वो कई सालों के बाद शालिनी से मिली है । दोनों एक दुसरे को बहुत कुछ सुनना सुनना चाहती है इसीलिए बाकि का दिन हाफ डे लेकर शची शालिनी साथ साथ लंच लेकर शेष दिन साथ बिताने का तय करते है । दोनों मॉल से एक साथ निकल गए )

अब
आगे :
दोनों एक रेस्टोरेंट में जाते है । खाना आर्डर करने के बाद शालिनी खुद को रोक न सकी ......शची, इम्तहान के बाद एक दम कहाँ गायब हो गई थी तुम ? तुम्हे तो पता भी न होगा मैं तुम्हे कितना याद करती थी .....ना कोई ख़त न कोई फोन ! अपनी शादी का कार्ड देने तुम्हारे घर जब गई तो पता चला चाचाजी के देहांत के बाद सब लोग मुंबई चले गए । इम्तहान के तुरंत बाद हम लोग उंटी चले गए थे जब आए तो पता चला इतना कुछ हो गया ।
अपने पापा की याद आते ही शची की आँखें नम हो गई कही न कही उनकी मौत का जिम्मेवार वो खुद को ही समझने लगी थी ....हालाँकि माँ और भाई ऐसा बिलकुल नहीं मानते है ।
ये लीजिये आपका आर्डर मेम .....सर्व कर दूँ ? धन्यवाद हम ले लेंगे। {वेटर खाना रख कर चला गया ....}
दरसल शची की शादी कालेज के प्रथम वर्ष में ही हो गई थी । उसके पापा को २ दिल के दोरे पड़ने के बाद वो यही चाहते थे कि उनकी आँखों के सामने शची का घर बस जाए इसीलिए शची के मामा और मौसी ने मिलकर उसकी मौसी के ही रिश्तेदारों में एक रहिस खानदान के सुन्दर इकलौते बेटे से उसकी शादी कर दी । लड़का सुन्दर था । फिलोसोफी में पी. एच. डी कर रहा था और शची के भी आगे पढ़ने पर ससुराल में किसी को कोई आपत्ति नहीं थी । और क्या चाहिए..... सबने मिलकर जल्द से जल्द शादी कर दी । शची ने भी अपने माता पिता कि ख़ुशी को अपनी ख़ुशी मान उनके इस निर्णय को स्वीकार किया । अब शची वर्षभर अपने ससुराल में रहती और इम्तहान के ३-४ महीनो पहले अपने माईके चली आती । इम्तहान ख़त्म होते ही दुसरे दिन वो अपने ससुराल चली जाया करती थी । ऐसे ही पढ़ाई के ३ वर्ष बीते । लेकिन हाँ जब जब शची कालेज आती उसका अलग ही रुतबा होता ...एक तो उसका उजला रूप उस पर सिंदूर भरी मांग, आधे-आधे हाथों तक भरी चूड़ियाँ, महंगे महंगे कपड़े और उस पर उसकी डाइमंड की ज्वैलरी सारी सहेलियाँ आँखे फाड़ फाड़ कर देखा करती थी । शची और शालिनी में स्कुल के समय से ही प्रगाड़ मित्रता थी ....लेकिन शादी के बाद शची कुछ चुप चुप सी रहती थी । सब समझते थे रहिस घर में शादी होजाने पर शची घमंडी हो गई है लेकिन शालिनी के लिए तो वो हमेशा ही उसकी परम सखी रही ।
शालिनी समझती थी, कि शादी के बाद माहौल बदल जाने के कारण शची में ये बदलाव आया है .....वो अक्सर शची से उसके पति सिद्धार्थ के बारे में पूछा करती और शची सिद्धार्थ की बहुत प्रसंशा किया करती..... सिद्धार्थ बहुत पड़ा लिखा और बुद्धिमान है यही जान कर शची अपने पति के ज्ञान और इस रिश्ते का बहुत आदर करती थी
इधर मीसा अपना खाना ख़त्म कर शालिनी की गोद में सोजती है .....दोनों सखियाँ कुछ देर बाद वही पास एक पार्क में बैठ अपने सुख दुःख की बातें करती है ।
अपने पापा की याद में शची का चहरा एक दम भाव विहीन हो गया था
शालिनी भी दुखी हो गई लेकिन फिर शची को हिम्मत दिलाने लगी माहौल हल्का करने के लिए शालिनी शची से बोली और कहो जीजू कैसे है ? क्या यही दिल्ली में जॉब करते है ? उन्हें लेकर घर आना शची ...
शची अतीत से वर्तमान में लौट आई ...नहीं शालू मैं यहाँ एक शेयर्ड अपार्टमेन्ट में रहती हूँ ३ और लड़कियों के साथ
सब बहुत अच्छी है , वे भी जॉब करती है दरसल मैं पिछले महीने ही मुंबई से यहाँ आई हूँ ......लेकिन सिद्धार्थ जीजू ! {शालिनी बड़े आश्चर्य से पूछा....}
शची शालिनी के अचरझ को उसके चहरे पर देख रही थी ....धीमी आवाज में बोली अब हम साथ नहीं है

क्या ?? कब
से ?

इम्तिहान के बाद जब मैं ससुराल गई तो ..उल्टे पाँव ही आना पड़ा

लेकिन क्यों ? शालिनी ने तुरंत पूछा ......क्योंकि शालिनी अपने कन्धों पर उस रिश्ते का बोझ ढोने में कोई सार न था जिसका कोई अर्थ ही न हो मुझे सिद्धार्थ से कोई शिकायत नहीं शायद मेरा भाग्य ही ऐसा था ...लेकिन उस नाव की सवारी भी कोई कैसे करे जिसका कोई नाविक ही न हो , इसीलिए मैं लौट आई शालू
शालिनी तो ये सब सून स्तब्ध थी वो तो हमेशा से यही जानती थी की शची का वैवाहिक जीवन बहुत सुखी है
शादी के बाद सिद्धार्थ हमेशा अपने शोध कार्य में व्यस्त रहते मुझसे बात करने की उन्हें फ़ुरसत हि नहीं होती । रात रात भर लाइब्रेरी में किताबे पढ़ा करते
घर में सब उनके ऐसे सारा दिन शोध में लगे रहने पर खुश नहीं थे ...चिंता भी करते लेकिन उनके विचार जितना मैं समझी उनके चरित्र को लेकर सोचना व्यर्थ था मुझे लगा गृहस्थी में व्यस्त हो वो हम दोनों की पढ़ाई में बाधा नहीं डालना चाहते ....इसीलिए जी तोड़ मेहनत कर अच्छे से अच्छे अंक लाकर में उन्हें प्रभावित करना चाहती थी
कालेज के अंतिम वर्ष इम्तहान के बाद माँ का स्वस्थ्य ठीक न होने के कारण सास ससुर की आज्ञा से मैं परिणाम तक दिल्ली ही रुक गई माँ के स्वस्थ्य में सुधार हुआ और परिणाम भी निकल गए मेरी आशा के अनुरूप मैंने यूनिवर्सिटी में सर्वाधिक अंक प्राप्त किये थे दुसरे ही दिन पापा और मैं मेरे ससुराल जाने के लिए निकल गए ...
क्रमश :

Tuesday, September 14, 2010

विरक्ति पथ.................रानीविशाल

वी आर सॉरी मैम ........इस पीस में पिंक कलर नहीं है हमारे स्टॉक में आप रेड ट्राई कर के देख सकती है ..यह रेड देखिये । नहीं रेड नहीं लाल रंग बहुत है मेरे पास मेरे पति अक्सर लाल रंग की ड्रेसेस ही लाते है मेरे लिए ...थैंक यू । मीसा, तुम यही इस कुर्सी पर बैठना मैं यह ग्रीन वाला ड्रेस ट्राई कर के देखती हूँ । अपनी ५ वर्ष की बेटी को कुर्सी पर बिठा कर शालिनी ट्रायल रूम में चली गई ।
देखो मीसा, अच्छा लग रहा है न ?.....अरे मीसा ! मीसा कहाँ चली गई २ मिनिट में..... अभी तो यही बैठी थी । शालिनी भाग भाग कर मॉल में अपनी बेटी को ढूंडने लगी । थोड़ी सी ही देर देखने पर जब मीसा न दिखी शालिनी के तो पसीने छूटने लगे, हाथों में कम्पन होने लगा । घबराई हुई शालिनी अपने पति अविनाश को फोन करने की कोशिश करने लगी लेकिन ये क्या मॉल में तो मुआ नेटवर्क ही नहीं मिल रहा अचानक सोचने लगी ....अविनाश भी नाराज़ होंगे कि तुम शोपिंग में इतनी व्यस्त हो गई कि मीसा का ध्यान भी न रख सकी .....तभी उसके मन में ख्याल आया रिसेप्शन पर जाकर पेज करती हूँ । मीसा बहुत समझदार है मेरी आवाज़ सुनते ही जहाँ कही होगी चली आएगी । बस ये ५ ही मिनिट का समय अंतराल था, जिसमे शालिनी के दिमाग में इतने विचार दौड़ गए । वह जैसे ही रिसेप्शन पर जाने को पलटती है .....एक महिला कि गोद में मीसा को देख तमतमा उठती है । वह महिला मीसा को गोद में लिए थी और मीसा उसके साथ खुश होकर खेल रही थी ।
ओ..... हेलो मीस, बच्चे चुराने का बिजनेस करती हो क्या ? अभी पुलिस को कॉल करती हूँ .....ऊँचे स्वर में उस महिला को झिड़कते हुए शालिनी ने मीसा को अपनी गोद में ले लिया । जैसे ही दोनों कि आपस में नज़रें टकराई... अरे शालिनी तुम ! सुनते ही शालिनी ने उसे ध्यान से देखा .....शची तुम ? और पल भर मैं दोनों सखियाँ पुरानी यादों के गलियारों में घूम आई । इतने साल बाद भी दोनों में उतना ही प्रेम भी तो था । शालिनी ने तुरंत शची को गले से लगा लिया । सॉरी शची, मैंने तुम्हे पहचाना ही नहीं ....दरसल कभी सोचा नहीं था कि तुमसे इस तरह यहाँ मुलाकात होगी । कोई बात नहीं शालू, तुम माँ हो न घबराना तो स्वाभाविक ही था । वो हुआ यूँ कि मैं यहाँ से गुज़र रही थी इतनी प्यारी बच्ची को बैठे देख उससे बात करने का दिल किया और बात करते करते उसे प्यार करने को गोद में लिया ही था मैंने कि मेरा एक ज़रूरी फोन आगया ...... यहाँ मॉल में तो नेटवर्क मिलाता ही नहीं तो मैं थोड़ा गेट तक चली गई लेकिन बच्ची को गोद से उतरना ही भूल गई ....गलती तो मेरी ही है ।
खैर छोड़ो ....ये बताओ तुम यहाँ कैसे ? मैं यहाँ के सेल्स डिविज़न की मेनेजर हूँ ....अरे वाह ये तो बड़ी अच्छी बात है । तुम इतने साल कहाँ थी शची और जीजू कैसे है ?
मैं खुश हूँ.... तुम्हे इस तरह देख बहुत अच्छा लग रहा है । मीसा बिलकुल तुम्हारी तरह लगती है इतने साल में तुम बिलकुल नहीं बदली । बचपन की दोनों सहेलियाँ इतने साल बाद एक दुसरे से मिलकर बहुत खुश थी । दोनों ही एक दुसरे से बहुत कुछ पूछना चाहती थी और बताना भी ।
घड़ी की और निगाह डालते हुए शची कहती है ........शालू, अगर तुम व्यस्त न हो तो आज हम लंच साथ ही लेते है । मैं हाफ डे लेलेती हूँ कही बैठ कर इतने बरसों की सारी बातें करेंगे ...अरे क्यों नहीं, अविनाश तो अपना टिफ़िन ऑफिस लेकर ही जाते है । ये ठीक भी रहेगा..... मेरा भी तो इतनी छोटी सी मुलाकात से मन न भरेगा और तुमसे बहुत कुछ जानना भी तो है । पता है ....मैंने तुम्हे कितना याद किया (और इसी तरह बातें करते करते दोनों शोपिंग मॉल से बहार निकल गई शची ने बड़े प्यार से मीसा को फिर अपनी गोद में उठा लिया और शालिनी अपने शोपिंग बेग्स उठा कर चल पड़ी )
क्रमशः

Friday, September 10, 2010

कह ना सकेंगा -----------रानीविशाल














पलकें
उठी
उठ कर झुकी
पल में सावल
करती कई
न मिली नज़र
कभी कही
पर नज़र में बस
हरसू वही
न नाम तो लिया
मगर
हर बात में
वही
वही
दिल जाने
वो नहीं कहीं
फिर भी ढूंढे उसे
इधर उधर
उसके नाम से
हर शाम ढले
उसी के नाम से
होती सहर
खामोशियों का
गुंजन वही
बेकली वही
तड़पन वही
न दुआएं अब
करें असर
दूभर हुआ
पहर पहर
क्यों न
खुद ही राही तक
चलकर अब
मंज़िल ही आजाए
पल पल इतना
तड़प लिए
अब और ना
तड़पाए
वो आजाए
बहार बन कर
मन की बगिया
महकाए

हर वक्त
अब तो दिल को
उसी पल का
इंतज़ार है
क्योंकि ये जानता है
दिल मेरा
यूँ तो
कह
ना सकेंगा
प्यार है ......!!

Thursday, September 2, 2010

अक्सर रुखी रातों में ......रानीविशाल















अक्सर रुखी रातों में
बेबस यादों के साए
जब मंडराते है
इधर उधर

तब दर्द मसकते
दिल के छाले
चटक चटक कर
फूटते है

तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था

जू रिसने लगा हो
मर्म की मांद में
मेंह का पानी
जो सुख जाता है
झंझावात के बाद ही
छोड़ कर पत्थरों पर
कुछ मायूस से निशान

यूँ ही सिमट जाता है
दर्द और कशिश का ये रेला
खामोश और तनहा
तिमिर मिट जाने के बाद

बस छुट जाते है लकीर नुमा
बंज़र से निशान इनके
जो दिखाई नहीं देते
बस महसूस हुआ करते है .....

Wednesday, September 1, 2010

बड़ा नटखट है रे .........रानीविशाल




















आज
श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर सभी ओर कृष्ण भजन और कृष्ण लीला का माहौल छाया रहता है, तो मैंने सोचा क्यों ना आज आपको कृष्ण लीला ही दिखाई जाए ....हाँ मेरे लिए तो यह कृष्ण लीला ही है । निश्चित तौर पर आपने भी आपने जीवन में श्री कृष्ण की ऐसी बाल लीलाओं का आन्नद लिया होगा और अपनी आँखों से श्री कृष्ण के बालरूप के दर्शन भी किये होंगे .....आज मेरी आँखों से आप यहाँ नटखट कन्हैया के चपल चंचल स्वरूप को देखिये । देख कर आप भी यही कहेंगे कि बड़ा नटखट है रे ...







चल चित्र में नज़र आने वाले नटखट कन्हैया मोहिनी रूप धर (मेरी बिटिया अनुष्का के रूप में) मेरे घर आँगन और जीवन में खुशियाँ बिखेर रहे है ।

आप सभी को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाए ...!!
जय श्री कृष्ण