Thursday, September 2, 2010
अक्सर रुखी रातों में ......रानीविशाल
अक्सर रुखी रातों में
बेबस यादों के साए
जब मंडराते है
इधर उधर
तब दर्द मसकते
दिल के छाले
चटक चटक कर
फूटते है
तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था
जू रिसने लगा हो
मर्म की मांद में
मेंह का पानी
जो सुख जाता है
झंझावात के बाद ही
छोड़ कर पत्थरों पर
कुछ मायूस से निशान
यूँ ही सिमट जाता है
दर्द और कशिश का ये रेला
खामोश और तनहा
तिमिर मिट जाने के बाद
बस छुट जाते है लकीर नुमा
बंज़र से निशान इनके
जो दिखाई नहीं देते
बस महसूस हुआ करते है .....
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29 comments:
गहरी संवेदना से निकली हूई उत्तम कविता
आभार
तब दर्द मसकते
दिल के छाले
चटक चटक कर
फूटते है
काफ़ी जज्बाती लगी ये पंक्तियाँ...
अहसास से लबरेज़ लगी है कविता...
खूबसूरत..
बहुत मार्मिक रचना ..
.तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था
एक टीस की लहर सी समां गयी ...
जू रिसने लगा हो
मर्म की मांद में
मेंह का पानी
जो सुख जाता है
झंझावात के बाद ही
छोड़ कर पत्थरों पर
कुछ मायूस से निशान
पूरी कविता ही एक नयापन लिए हुए है.. लेकिन जाने क्यों ये पंक्तियाँ बहुत ही ज्यादा सुन्दर लगीं..
दर्द को खूब शब्द दिए हैं आपने!
आभार.
आशीष
--
बैचलर पोहा!
संवेदनाओं से परिपूर्ण शब्द-चित्र दिल को
छू लेते हैं . सार्थक काव्य -लेखन के लिए हार्दिक
बधाई और शुभकामनाएं
रचना बहुत सुंदर है। रचना का पूर्वार्ध का शिल्प बहुत अच्छा है उस में गति और लय है। लेकिन उत्तरार्ध में वह टूटती प्रतीत होतीं हैं।
दर्द की तहरीरें किस तरह आती है , बहुत अच्छी तरह कहा-
तब दर्द मसकते
दिल के छाले
चटक चटक कर
फूटते है
..gahari samvedana jhalkti hai.
दर्द का मार्मिक चित्रण कर दिया।
रानी जी नमस्कार! गहरी संवेदना महसूस कराती एक लाजबाव रचना। बधाई! -: VISIT MY BLOG :- जब तन्हा होँ किसी सफर मेँ।..............गजल को पढ़कर अपने अमूल्य विचार व्यक्त करने के लिए आप सादर आमंत्रित हैँ। आप इस लिँक पर क्लिक कर सकती हैँ।
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दर्द उकेर दिया संवेदनशील कलम ने.
दर्द ही दर्द है आप की इस खुब सुरत कविता मै, अति सुंदर भाव, धन्यवाद
तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था
बहुत ही भावपूर्ण रचना ...
तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था--------------------------------------sundar aur behatareen panktiyan.ekdam man kochhoo lene vali.
तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था >
दर्द को शब्दों में साकार कर दिया । बहुत सुंदर ।
बहुत मार्मिक रचना ..
आज़ की कविता पूरी तरह मेरे इर्द गिर्द घूमती लगी
वाह क्या बात है
तब टिप टिप कर
रिसने लगता है
वो दर्द का दरिया
जो छुपा हुआ था
तपस आलोक में
जो कई तहों में
दबा हुआ था
बस छुट जाते है लकीर नुमा
बंज़र से निशान इनके
जो दिखाई नहीं देते
बस महसूस हुआ करते है .....
बहुत ही उम्दा और सच्ची रचना ,मान गए ,ये पंक्तियाँ मुझे भी अपने बेहद करीब महसूस हुई हाल ही में हुए कुछ घटनाक्रमों की वजह से
ऐसे ही लिखती रहें ,आपका आभार
महक
बहुत अच्छी रचना,
अनुष्का के ब्लॉग पर प्रतिक्रिया देने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा इसलिए आपके ब्लॉग को माध्यम बनाकर अनुष्का के लिए :-
@अनुष्का
आपका ब्लॉग जगत में हार्दिक अभिनन्दन ।
आशा करता हूँ की लोगों को आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा, क्योंकि सीखने के लिए उम्र मायने नहीं रखती।
यहाँ भी पधारें :-
No Right Click
nishan jo dikhai na de , bs mhsoos kiye jate ho to mashaallah uski seert kya khoob hogi . adbhut khyal behtreen prstuti .
nishan jo dikhai na de , bs mhsoos kiye jate ho to mashaallah uski seert kya khoob hogi . adbhut khyal behtreen prstuti .
यूँ ही सिमट जाता है
दर्द और कशिश का ये रेला
खामोश और तनहा
तिमिर मिट जाने के बाद
बस छुट जाते है लकीर नुमा
बंज़र से निशान इनके
जो दिखाई नहीं देते
बस महसूस हुआ करते है .....
वाह...बहुत खूब...
सटीक शब्द...खास शैली...
कितना अच्छा लिखती हैं आप...
बधाई...
और ईद की शुभकामनाए.
दर्द को उन रुखी रातों का बयाँ करना उस दर्द से होकर गुजरना है ! बड़े ही गहरे भाव हैं जिन्हें आपने खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है ! बहुत बहुत आभार !
aap bahot atchha likhti hai, if u free so visit my blog one time http://www.onlylove-love.blogspot.com
"वो दर्द का दरिया --------दबा हुआ था "|बहुत भाव पूर्ण लेखन के लिए बधाई |
आशा
वेदना को अच्छा स्वर दिया है ।
बस छुट जाते है लकीर नुमा
बंज़र से निशान इनके
जो दिखाई नहीं देते
बस महसूस हुआ करते है .....
अत्यंत गहन अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
रामराम.
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