धरती मचले प्यास से, बादल का ना कोई निशान
चंचल मन हुआ बावरा, तुम बिन देह हुई निष्प्राण
कोयल कूहके बाग में, पपीहे ने मचाया शोर
ऋतु पर भी यौवन चड़ा, पर ना नाचे मन का मोर
लगे है चन्दन आग सा, पुरवाई चुभोए शूल
मैं जोगन बन राह तकू, पियुजी गए तुम मुझको भूल
चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा
सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा
तुम बिन सब सुख दुःख भये, ना पाए मन कहीं चैन
प्राण जाए तो जाए पर, ना आए विरह की रैन.....ना आए विरह की रैन !!
30 comments:
सचमुच विरह की रैन कितनी पीड़ा भरी होती है और वह भी वसंत ऋतु में
भावों -भावनाओं की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
बहेतरीन रचना ......
Rani ji.. kripya bura na manen.. aaj kai kamiyaan hain rachna me. abbal to shabd theek kar lijiye warna abhi Girijesh ji aate hi honge.. :)
virah ki vedna ko bhali bhanti bata gayi yah rachna..
sundar..
virah ki vedna ko bhali bhanti bata gayi yah rachna..
sundar..
विरह वेदना का सुन्दर वर्णन !!
विरह वेदना का सुन्दर वर्णन !!
सुन्दर भाव!
ना आए विरह की रैन !!
बहुत सुन्दर चित्रण विरह् का, हम जानते हैं, क्योंकि हम झेल रहे हैं :(
दूर देश में बैठ कर करती हैं संवाद'
होली अपने देश की ,आती होगी याद !
चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा
सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा
कविता मे सज कर विरह भी इतनी सुन्दर हो सकती है आज जाना । बहुत सुन्दर कविता है बधाई
विरह प्रधान ऐसे गीत आजकल कम पढ़ने सुनने में आते हैं, बधाई आपको!
बहुत सुंदर भाव और सशक्त रचना.
रामराम.
चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा
सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा
बहुत सुंदर पंक्तियाँ....... मन मोह मोह लिया इस रचना ने....
आभार....
आदाब
काव्य की विभिन्न विद्याओं में नित नये प्रयास की कड़ी में एक सफ़ल रचना का सृजन.
बिरह शब्द जिससे प्रेमी डरेंगे ..
कारण आपकी कविता में उस बेचैनी का प्रस्तुति जो इतनी सटीक है की क्या कहने..
तुम बिन सब सुख दुःख भये, ना पाए मन कहीं चैन
प्राण जाए तो जाए पर, ना आए विरह की रैन..
सौ प्रतिशत सहमत.
नारी सुलभ भावनाओं की सुन्दर सचित्र अभिव्यक्ित
bahut hi sashakt abhivyakti.
प्राण जाए तो जाए पर, ना आए विरह की रैन
वाकई विरह की रैन तो मृत्यु से भी भयानक है.
सुन्दर रचना
चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा
सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा ..
vaah.sundr.
बहुत कोमल शब्दों में विरह की पीड़ा को दर्शाया है....और चित्र भी सुन्दर हैं....
आपकी रचना बेहद सुंदर बनी पड़ी है, बिरह का दर्द जीवंत नजर आ रहा है। कल क्लिक किया था, आपका नाम पढ़कर रानी विशाल। ब्लॉग को पढ़ नहीं पाया था, किसी कारण वश। इसको बहाना न जानिएगा।
चलते चलते "बिरह तो प्रेम को और मजबूत करता है, बिन बिरह प्रेम के अर्थ समझना भी मुश्किल सा लगता है"।
bahoot sundar aapke blog par aakar kusee huyee achha laga
वाह बहुत ही सुंदर विरह रचना ,
आपको पढना अब आदत बनती जा रही है तो इसमें कोई आशचर्य नहीं है ....लिखती रहें ..शुभकामनाएं
अजय कुमार झा
रानी जी, कविता में विरह का वर्णन करना बहुत ही दुरूह कार्य है।लेकिन आपने इतनी सहजता और खूबसूरती से इसे अंजाम दिया है-----बहुत बढ़िया लगी आपकी यह रचना। पूनम
चंद्रप्रभा से रात सजी, तारो ने जमाया डेरा
सिसक विरह में रात कटी, असुवन में हुआ सवेरा
कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है।
रानी विशाल जी-
आप बढिया लिखती है,
बसंत ॠतु मे विरह का भाव
बड़ी कोमलता से प्रस्तुत किया
आभार
virah ka ati sunder chitran.
लगे है चन्दन आग सा, पुरवाई चुभोए शूल
मैं जोगन बन राह तकू, पियुजी गए तुम मुझको भूल
.........
विरह वर्णन बहुत ही अच्छे से किया......
कविता मे सज कर विरह भी इतनी सुन्दर हो सकती है आज जाना । बहुत सुन्दर कविता है बधाई
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