(अब तक : शालिनी और शची वर्षों के बाद दिल्ली में फिर से मिले है लेकिन इतने सालों में काफ़ी कुछ बदल चूका है ....दोनों सखियाँ शेष दिवस साथ बिता कर सुख दुःख बाटने लगती है । बातों ही बातों में पता चला शची अकेली रहती है उसका पति उसके साथ नहीं । कारण पूछने पर शची वृतांत सुना रही है कि किस तरह इम्तहान के बाद जब वो अपने पापा के साथ ससुराल मनाली पहुची तो सिद्धार्ट के व्यवहार में परिवर्तन आगया .....वह साधू सन्यासियों सी बातें कर रहा है । शची समेत संसार कि सभी स्त्रियाँ उसके लिए मातृवत है ......शची आपने सपनों के टूटने के दर्द से सारी रात तड़पती रही )
अब आगे : सिद्धार्थ के कक्ष से जाते समय शची अच्छे से समझ गई थी कि इसके बाद वो कभी इस कक्ष में उसके साथ नहीं हो पाएगी ....अब उसे यह ठीक से समझ आगया था कि शायद वह जिसे सिद्धार्थ का बड़प्पन समझ रही थी वह तो उसका अलगाव ही था . सुबह होते ही शची चाय लेकर आपने सास ससुर कि सेवा में पहुच गई शची के हाथों चाय कि प्याली लेते हुए वे एक टक खिड़की से सुनी राहों को निहार रहे थे . शची के चहरे पर उसकी व्यथा साफ़ नज़र आरही थी . भोर होने से पहले उन्होंने ही इस खिड़की से सिद्धार्थ को दूर सड़क पर जाते हुए देखा था ...मानो आज वो सच मुच ये सारे बंधन ये जिम्मेदारियां छोड़ कर सदा को जारहा है . आखिर वो उसके माता पिता थे उसमे आए इस बदलाव को वो पहले ही भांप चुके थे . शची की सास उसके सर पर हाथ रख कर हिम्मत दिलाती है ......धैर्य रख बेटा सब ठीक हो जाएगा . पीड़ा के इन क्षणों में इस संत्वना ने शची को मोम कि तरह पिघला दिया और शची अपनी सास के घुटनों पर सर रख कर बिलख बिलख कर बच्चों की भाँती रोने लगी ....अब कुछ ठीक नहीं होगा माँ .....वो मुझे इस रिश्ते से स्वतंत्र कर चुके है , वे तो कभी इस बंधन में बंधे ही नहीं सदा विरक्त थे .....वो तो मैं ही थी जो प्रेम की आस लगाए बैठी थी . उन्होंने कहा है कि अब उनका संसार के हर प्राणी से एक ही रिश्ता है जो जीवमात्र का एक दूजे से होता है .....अब मैं क्या करू माँ ??
शची का यह रोदन उसके पापा को पूरी तरह आहत कर गया जो अभी अभी बैठक में पहुचे ही थे कि ये सब उन्हें सुनाई दिया वे तो ख़ुशी ख़ुशी स्वस्थ महसूस करने पर सबसे रवानगी कि आज्ञा लेने आए थे .....अब उन्हें भी समझ में आया कि सुबह ४ :०० के आस पास दूर सड़क पर अपनी ही धुन में चला जारहा वह युवक कोई और नहीं सिद्धार्थ ही था .
उन्होंने शची से कहा बेटी तू मेरे साथ ही चल ....शायद इसीलिए मैं अब टक यहाँ रुका था , वे दुखी मन से बोले
नहीं नहीं भाईसाब हम सिद्धार्थ को ढूंढ़ कर लाएंगे उसे समझाएंगे.....आप हौसला रखे .
मैं आपकी बात समझता हूँ लेकिन फिलहाल शची का मेरे साथ ही जाना ठीक है . अपने लोगो के बिच इसके तड़पते ह्रदय को ठाह मिले ...सिद्धार्थ के माता पिता बहुत शर्मिंदा थे लेकिन शची और उसके पिता समझते थे कि इसमे उनका क्या दोष दोनों पुनः दिल्ली के लिए रवाना हो गए .सारे रस्ते बाप बेटी एक दुसरे से कुछ न कह सके , कुछ बोलते भी तो कंठ भर आता
शाम ढले जब दोनों घर पहुचे तो शची की माँ उसे अपने पापा के साथ देख अचंभित रह गई ...माँ के ह्रदय से लगते ही शची का सारा दर्द आँखों से बहाने लगा ....
शालू , उस रात इस सदमे को लेकर पापा सोए तो सुबह नहीं उठ पाए ....यह समाचार पाकर जब सिद्धार्थ के माता पिता आए तो पता चला कि उस दिन के बाद सिद्धार्थ घर नहीं लौटा .....वो तो निकल पड़ा था अपने विरक्ति पथ पर अपने बूढ़े माता पिता को निसहाय छोड़ कर इतना ज्ञान अर्जन कर कर्तव्य पथ और विरक्ति पथ में उसने विरक्ति पथ चुन लिया था जाने कौनसा परमानंद पाने को ...जब कि बड़े बड़े ज्ञानी कह गए है ...माता पिता के चरणों में स्वर्ग होता है
भाई की नौकरी मुंबई में लग गई थी ....इसीलिए हम सब घरबार बेच कर मुंबई ही चले गए ..
कुछ साल बीते भैया और माँ के हौसले से मैंने खुद को संभाल ही लिया और भैया के साथ ही उसकी कंपनी के मार्केटिंग डिविज़न में जाब करने लगी ....लेकिन अन्दर का सूनापन हमेशा मसोसता रहा
भाई और माँ यह जानते थे कि आत्मनिर्भर और कुछ कर पाने का अहसास ही मुझे कुछ सुकून दे सकेगा ....इसी लिए जब मुझे यह जॉब मिली तो उन्होंने ख़ुशी से मुझे आने कि आज्ञा दी .....इस शहर में मेरी बचपन कि यादें रची बसी है जो मुझे इस तन्हाई का अहसास नहीं होने देती .....
लेकिन शची तुमने दूसरी शादी क्यों नहीं की ??
एक बार इस बंधन में हुई आसक्ति को तोड़ कर सिद्धार्थ ने मेरी आस्था को वो ठेस पहुचाई है कि अब इस पर विश्वास नहीं होता ...हाँ कभी कभार साल में एकाध बार सिद्धार्थ के बूढ़े माता पिता से मिलाने चली जाती हूँ उनके अकेलेपन और लाचारी का ख्याल आता है तो दुःख होता है ...वे भी अब मुझे बेटी सा ही स्नेह देते है वो रिश्ता तो अब बहुत पीछे छुट गया
बातों बातों में अविनाश (शालिनी ) के पति भी पार्क में आपहुचे .....सब लोगो का हसी ख़ुशी संवाद हुआ शची भी खुश थी ......फिर सब अपने अपने घर को निकल पड़े . सारे रस्ते शालिनी के नेत्रों से अश्रुधाराएं बह रही थी , जिन्हें वो शची से तो छुपा रही थी लेकिन अपने हमराज़ से ना छुपा सकी .
शालिनी एकांत में घंटों सोचती रही कि वो निर्दोष जो अपने समस्त प्रेम का अर्ध्य देकर अपने जीवन को आस्था और विश्वास के सुरों से झंकृत करना चाहती थी .......उसके जीवन को खुशियों और विश्वास से विरक्त करके .........बूढ़े मजबूर माता पिता को जीने कि चाह से विरक्त करके अपने विरक्ति पथ पर अग्रसर हुआ सिद्धार्थ -कौनसा परमानन्द किस तरह पाएगा .....क्या निर्थक नहीं अपने कर्तव्यपथ को छोड़ कर जाने वाला यह विरक्ति पथ !!!!
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26 comments:
विरक्ति पथिक अगर मिल जाय तो यह कहनी का सीक्वेल हो जाय !
achchhi kahani......aabhar
जो कर्तव्य पथ छोडते हैं उनको कभी भी परमानंद नहीं प्राप्त हो सकता ..बहुत अच्छी लगी कहानी ..सोचने पर मजबूर करती हुई
इधर कुछ दिनों से व्यस्तता क्या बढी, आपने तो कहानी ही डाल दी, और हम देख ही नहीं पाये:( अब पहले आगे के भाग पड लूं, तब एक साथ कोई राय दूं. ठीक है न रानी जी?
घटना की मार्मिकता, सूक्ष्म, सघन दृष्टि और आपके विवरण के कौशल से इस कथा की घटनाएं जीवंत हो उठी है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
देसिल बयना-गयी बात बहू के हाथ, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!
”सिद्धार्थ ने मेरी आस्था को वो ठेस पहुचाई है कि अब इस पर विश्वास नहीं होता”
ह्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म...
ऐसा होता है...
लेकिन...
आप भूल गईं क्या?
’तब्दीलियां तो वक़्त का पहला उसूल है’
बहरहाल कहानी बहुत अच्छी रही...बधाई.
बहुत सुंदर कहानी. शुभकामनाएं.
रामराम.
Marmik lagee apki yah kahanee...bhasha shilp bhee akarshak hai...shubhkamnayen.
@ वंदना दी आप आराम से फुर्सत निकल कर कहानी पढियेगा और अपने सुझाव भी दीजियेगा ....आपके कुछ दिनों से यहाँ नहीं पहुच्पाने पर ही मैं समझ गई थी कि आप व्यस्त है :)
aaplki kavita aur apke vicharon se avgat hua....mai aik patrakaar aur lekhak hun....aap mere in blogon ko bhi dekhein:tetarbekahaniyan.blogspot.com/tetarbeviews/tetarbetoons/
aapakaa dilip tetarbe,ranchi
MO:9304453797
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है आपकी कहानी... जिम्मेदारी होने पर विरक्ति पथ चुनना ठीक नहीं हमारा तो यही मानना है।
वैसे शची के जीवन की यह कहानी एक लघु उपन्यास की शक्ल भी ले सकती थी . फिर भी आपने कहानी को जिस मोड़ पर खत्म किया , वहां हमें अपने देश की पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों का संकेत जरूर मिलता है . मेरे ख़याल से यही इस कहानी की खासियत है. कहाने मन को छू कर विचलित कर देती है. यह सोच कर मन बेचैन हो जाता है कि शची के जीवन में आगे क्या हो रहा होगा ? बहरहाल एक संवेदनशील कहानी के जरिए आपने आज के समाज को कुछ सोचने के लिए वास्तव में मजबूर कर दिया है. लेखन जारी रखें .शुभकामनाएं .
वैसे शची के जीवन की यह कहानी एक लघु उपन्यास की शक्ल भेई ले सकती थी . फिर भी आपने कहानी को जिस मोड़ पर खत्म किया , वहां हमें अपने देश की पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों का संकेत जरूर मिलता है . मेरे ख़याल से यही इस कहानी की खासियत है. कहाने मन को छू कर विचलित कर देती है. यह सोच कर मन बेचैन हो जाता है कि शची के जीवन में आगे क्या हो रहा होगा ? बहरहाल एक संवेदनशील कहानी के जरिए आपने आज के समाज को कुछ सोचने के लिए वास्तव में मजबूर कर दिया है. लेखन जारी रखें .शुभकामनाएं .
बहुत इत्मीनान से पूरी किस्तें पढ़ीं मैंने... आपने कहानी में तो एकदम बांध कर रखा... बहुत सुंदर कहानी...
मैं लेट हो रहा हूँ आजकल.... सॉरी ..... आप न जब भी पोस्ट डालिए तो मुझे ज़रूर मेल कर दिया करिए....
puri kahani me bandh ker rakha hai aapne ..her alfaz aapne cunker sahi jagah per prayog kiye hai
शची की सास उसके सर पर हाथ रख कर हिम्मत दिलाती है ......धैर्य रख बेटा सब ठीक हो जाएगा . पीड़ा के इन क्षणों में इस संत्वना ने शची को मोम कि तरह पिघला दिया और शची अपनी सास के घुटनों पर सर रख कर बिलख बिलख कर बच्चों की भाँती रोने लगी ....अब कुछ ठीक नहीं होगा माँ .....वो मुझे इस रिश्ते से स्वतंत्र कर चुके है , वे तो कभी इस बंधन में बंधे ही नहीं सदा विरक्त थे .....वो तो मैं ही थी जो प्रेम की आस लगाए बैठी थी . उन्होंने कहा है कि अब उनका संसार के हर प्राणी से एक ही रिश्ता है जो जीवमात्र का एक दूजे से होता है .....अब मैं क्या करू माँ ??
inlines me to aapne dard ke saath aurat ke tin pahelu dikhaye hai 1- maa , 2- patni ,3- shanshilta ki murat ..jo ki lajawab hai
badhai ....
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
tulsibhai patel
उम्दा लेखन के लिए आभार
आपकी पोस्ट ब्लॉग4वार्ता पर
शचि भला पुनर्विश्वास जगाये तो कैसे...बहुत बेहतरीन कहानी रही. एक बार पूरा अब एक साथ पढ़ेंगे शनिवार को...
बधाई..बहुत से विचार उभर आये पढ़ते पढ़ते..सफल रही.
विरक्ति पथ!
--
नाम के अनुरूप एक सुन्दर कथा!
Sansar se bhag kar kab Bhagwan mila hai.
Sunder sochne ko majboor karati kahani.
सिद्धर्थ इतना पढा लिखा लडका था ये बात उसे शादी से पहले ही अपने माँ बाप को कहनी चाहिये थी। लेकिन ये कैसी विर्क्ति ये तो अपने कर्त्व्य से भागना हुया। बेचारी शचि। रानी ये कहानी और आगे बढ सकती है। सिद्धार्थ को इस विरक्ति से क्या मिला और शचि को क्या। शायद एक उपन्यास का रूप ले ले।कथ्य, कथानक, शैली सब कुछ बहुत अच्छा है। सुन्दर कहानी के लिये बधाई।
बहुत ही सुन्दर कहानी ।
Shuru se ant tak pooree kahani padhi...sach,aisi virakti kis kaam kee jo apne p kartavon se pare hata de!
Nihayat khoobsoorat katha likhi hai aapne!
Pahli baar aayi hun aapke blog pe aur ab follower ban ke laut rahee hun.
रानी जी आपके लेखन को पसंद करते हैं हम, लेकिन टुकड़ा टुकड़ा में कहाँई नहीं पडः सकते हैं.. इसलिए केतना बार हम पूरा समाप्त होने के बाद अपना बात कहते हैं.. आसा है बुरा नहीं मानेंगीं आप!!
इसलिए तीनों पढने के बाद जल्दी लौटेंगे हम!!
सुन्दर कहानी,
किसी ब्लॉग को फॉलो करें ब्लॉगर प्रोफाइल के साथ
अंत तक बांधे रहती है यह कहानी...सुन्दर प्रस्तुति.
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'शब्द-शिखर'- 21 वीं सदी की बेटी.
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