क्या कहूँ की जो शुरुआत हुई
जैसे तपते दिन में रात हुई
सूरज ने ली सब किरणें समेट
मातम ने घर को लिया चपेट
सबकी शक्लें मुरझाई हैं
हाय ! लड़की घर में आई है
न थाली बजी, न पेड़े बटें
न मिली दुआ , न उतरी बला
छाई आफत की परछाई हैं
पर माँ तो "माँ "है क्या करती
कैसे देख उसे, आहें भरती
ये रिश्ता जग से न्यारा है
उसे तो बेटी का रूप भी प्यारा है
पिता का दिल कुछ भारी है
पर संतान इन्हें भी प्यारी है
चिंता हो मन में, फिर भी मैं
होंठो को अपने सी लूँगा
चार निवाले दे तुझको
खुद दो घूंट पानी पी लूँगा
बस दिल में गहरा दर्द भरा
ना सोना बड़ा घड़ो में कभी
न रकम बड़ी है तिजोरी में
बरस में दो दो सावन आकर
रंग भरे हैं मेरी छोरी में
बीत गए, दिनों में साल कई
एक दम से मुनिया, बड़ी हुई
कुछ भी कर अब पिता को तो
बेटी का ब्याह रचाना है
दहेज़ की मांग पूरी करने को
खुद खड़े खड़े बिक जाना है
इतने पर भी उनको चैन कहा
जो दहेज़ नहीं कभी लेते है
बस बेटी को अपनी, उपहार दीजिये
इतना ही कह देते है
आव भगत की बात तो तय है
कपड़े कितने दिलाओगे
ठाकुरजी के भोग को क्या ना
चाँदी के बर्तन लाओगे
मारुती में ही गुजर करेंगे
छोटे से फ्लेट में रह लेंगे
बेटी को दो, जो देना है
हम दहेज़ कतई नहीं लेंगे
तब रोती है ममता खुद पर
और बाप का दिल भर आता है
वरना बेटी का मखमल सा
प्यार किसे नहीं भाता है
जब तक दहेज़ के दानव का
विस्तार यहाँ ना कम होगा
तब तक गरीब के घरो में
"बेटी का जन्म" मातम होगा
17 comments:
कडवी सच्चाई को कविता के जरिये बखूबी बयान किया गया है।
बढिया।
जब तक दहेज़ के दानव का
विस्तार यहाँ ना कम होगा
तब तक गरीब के घरो में
"बेटी का जन्म" मातम होगा
-कटु सत्य..दहेज एक अभिशाप है.
दहेज एक अभिशाप है....कह तो देते हैं, लेकिन इसे मिटने के लिए कर क्या रहे हैं हम लोग ? इसे मिटाना कोई शिव धनुष की प्रतंच्या चढ़ाना तो है नहीं ...फिर भी बस यही कह कर क्यूँ सभी अपना दमन झटक लेते हैं की साहब दहेज एक अभिशाप है.....
जाने क्या विवशता है ?
बिचारी लडकी !!
बिल्कुल सत्य, कटु सत्य
इस दहेज़ के राक्षस को ख़त्म करना पड़ेगा...
एक कडवी सच्चाई के साथ... बहुत कुछ सोचने को मजबूर और जागरूक करती सुंदर कविता....
इक्कीसवीं सदी में भी सामंती रूढ़ियों वाले पुरु-प्रधान समाज में नारी समस्या के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए आत्माभिव्यक्ति में कितनी कठिनाई हो सकती है, यह सहज अनुमेय है। फिर भी आपने कविता के माध्यम से जो आवाज उठाई है वह प्रशंसनीय है। आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है।
जब तक दहेज़ के दानव का
विस्तार यहाँ ना कम होगा
तब तक गरीब के घरो में
"बेटी का जन्म" मातम होगा
भावुक रचना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
पिता का दिल कुछ भारी है
पर संतान इन्हें भी प्यारी है
चिंता हो मन में, फिर भी मैं
होंठो को अपने सी लूँगा
चार निवाले दे तुझको
खुद दो घूंट पानी पी लूँगा
बिलकुल आज का कटु सत्य है आपकी ये रचना बधाई
ओह बहुत मार्मिक
BHAVNAON SE PURNA AUR MAARMIK ADBHUTAAS KAVITA... MAJA AA GAYA...
एक ऐसा सत्य जो गले की फ़ांस है, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
bahut sundar rachana he ji
yah utna hi sach hai jitna suraj har roj nikalta hai...
agle janm mujhe kanya na kijo prabhu ji..
इस कटु सत्य को सुन्दर शब्दों का जाल बुन,बहुत ही कुशलता स उजागर किया है....यह निर्मम सत्य है...हम चाहें लाख दुहाई दें...पर दहेज़ के दानव ने तो पता नहीं कितनी बालियाँ ले ली हैं...
Sundar Kavita
बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने , आपने जो कुछ भी लिखा वह सच में बिल्कुल सत्य है , आपकी कविता मर्म के साथ-साथ ममता भी समेटे हुये है , इस लाजवाब रचना के लिए बधाई आपको ।
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