बन बैठा इंसान दरिंदा, तौबा इसकी बुरी नज़र ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
नर्क बना रहे जीवन इनका, इज्जत को इनकी छीन कर ।
ये भी माँ, बहन, किसी कि बेटी है, खुद अपने घर में डाल नज़र ।।
ना भरोसा आस पड़ोस का, ना बचा यकीन किसी रिश्तेदार पर ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
औरत के बदन मैं बस, उसकी इज्जत ही सांसे लेती है ।
दो मुक्ति भय से इसको भी, क्यों डरी डरी ये रहती है ।।
भय भरा है मन में दरिंदो का, स्वछंद भ्रमण अधिकार दो ।
ये विश्व सृजन की भागी है, इसे इज्जत दो सत्कार दो ।।
कोलेज , बस्ती में जीना मुश्किल, छेडी जाती है हर गाँव शहर ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
उन्नति की ये पहचान है, इसे पढ़ना आगे बड़ना है ।
पापी इसके प्रतिकार से डर, बिन मौत तुझे क्यों मरना है ।।
ना इसका सीना छलनी कर, ऐसी ओछी दुराचारी कर ।
इसने ही रचा है तुझको भी, ना खुद ईश्वर से गद्दारी कर ।।
हर देश सदा आगे बड़ पाया, एक शुद्ध समाज की नीव पर ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
19 comments:
aaj ki samay mein jwalant samsya ki or ishaara karti hui rachna...
bahut hi saamyik aur saarthak..
bahut hi acchi prastuti..
sach me sochne ke liye majboor karti hai ye kavita ki kya manushya kabhi nahin sudhrega..
abhar
सोचने को मजबूर करती रचना.
बहुत सुन्दर
चित्र सटीक
इक्कीसवीं सदी में भी सामंती रूढ़ियों वाले पुरु-प्रधान समाज में नारी के जीवन संघर्ष में कितनी कठिनाई हो सकती है, यह सहज अनुमेय है। आपने कविता के माध्यम से जो आवाज उठाई है वह प्रशंसनीय है। इस कविता में बहुत बेहतर, बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है। आपकी इस कविता में सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है।
बेलौस और बुलंद रचना
यथार्थ की ओर इशारा करती हुई कविता, सामाजिक और घरेलु पहलू भी हैं इसके लिये जिम्मेदार, जिस नारी की इज्जत के लिये प्यासे हैं वहशी दरिंदे, उसी नारी को जय माता दी या लक्ष्मी कहकर पूजते भी हैं लोग, पता नहीं कैसे एक ही नारी को दो पहलुओं से देखते हैं ये वहशी। अगर माँ मानते हैं, पूजा करते हैं तो इन वहशियों की नजरें बदल जानी चाहिये पर पता नहीं क्या इन वहशियों को करने पर मजबूर करता है और हमारा समाज है कि कुछ बोलता भी नहीं। मौन धारण किये रहता है....
उन्नति की ये पहचान है, इसे पढ़ना आगे बड़ना है ।
पापी इसके प्रतिकार से डर, बिन मौत तुझे क्यों मरना है ।।
-सच कहा!! बहुत अच्छी रचना..सच उजागर करती!
वर्तमान हालात को आपकी शब्दों का आधार मिला और बन गयी एक संवेदी रचना....!!
आज के बदलते युग में भी ......ये हाल है नारी का , मौजूदा स्थिति को व्यक्त करती हुई ये रचना .
बन बैठा इंसान दरिंदा, तौबा इसकी बुरी नज़र ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
bahut acchi rachna, jab tak balatkariyoM ke khilaf ouraten aage nahi aayegi, purush samaaj saayed ladkiyon ke khilaf aisa hi karataa rahega.
सोचने को मजबूर करती रचना.
बहुत सुन्दर
रचना..सच उजागर करती!
बहुत अच्छे ढंग से की गयी प्रस्तुति .. यही तो आज का सत्य है !!
एक बहुत बढ़ी समस्या और सामाजिक बुराई की ओर इंगित करती
रचना
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
savedna se bhari hai ye rachna .pata nahi kab ?
manviyata ko payege log.
कटु त्रासद यथार्थ को सार्थक ढंग से उठाया है आपने....साधुवाद...
वर्तमान स्तिथि की सच्चाई उजागर करती है. सोचने को मजबूर कर देती हैं. रचना बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की गई है.
महावीर शर्मा
भय भरा है मन में दरिंदो का, स्वछंद भ्रमण अधिकार दो ।
ये विश्व सृजन की भागी है, इसे इज्जत दो सत्कार दो ।
...सार्थक कविता.
आदाब,
कविता के रूप में समाज का कड़वा सच पेश किया है आपने.
नर्क बना रहे जीवन इनका, इज्जत को इनकी छीन कर.
ये भी माँ, बहन, किसी कि बेटी है, खुद अपने घर में डाल नज़र..
नवाज़ देवबंदी का शेर है-
बद नज़र उठने ही वाली थी किसी की जानिब
अपनी बेटी का ख्याल आया तो दिल कांप गया..
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