Tuesday, January 26, 2010

जिंदगी से अब मिले


बनते रहे हमदर्द और मनमीत हो गए

दूर तुम इतने हुए की , नजदीक हो गए

ना वजूद कुछ मेरा बचा , ना हस्ती रही तेरी

कुछ इस तरह से प्यार की, बस्ती में खो गए

गुलाबों सी नर्मिया, महसूस होती है कदमो तले

कि दो हाथ उठाते है, दुआ में मेरे लिए

ख्वाइश है युही शामिल, रह जाए तेरे अपनो में

फिर आकर तुझे सताए ,हर रात तेरे सपनों में

जी तो रहे थे अब तक, जिंदगी से अब मिले

बदनाम थे गलियों के ,अब नूर-ऐ-नजर हो चले

10 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर!
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है-
http://charchamanch.blogspot.com/2010/01/blog-post_4590.html

Udan Tashtari said...

बढ़िया रचना!

स्वप्न मञ्जूषा said...

khoobsurat..
acchi lagi aapki racha..

Mithilesh dubey said...

बेहद उम्दा व गहरे भाव लगे आपके ।

निर्मला कपिला said...

बेहतरीन रचना शुभकामनायें

सदा said...

बहुत ही भावमय प्रस्‍तुति ।

अजय कुमार said...

ख्वाइश है युही शामिल, रह जाए तेरे अपनो में

फिर आकर तुझे सताए ,हर रात तेरे सपनों में

अच्छा खयाल , बढ़िया रचना

वन्दना अवस्थी दुबे said...

सुन्दर है. पढ के -"क्यूं ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गये, इतने हुए करीब कि हम दूर हो गये" की याद आ गई.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

मोहतरमा 'रानी' साहिबा आदाब
आपके ब्लाग पर पहली बार आना हुआ है..
बहुत सुन्दर भाव है
इन्हें सही पैमाने में ढाल लिया जाये,
तो और खूबसूरत हो जायेंगे
शुभकामनाएं

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

संजय भास्‍कर said...

क्या बात है , लाजवाब लिखा है आपने ।